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सोनभद्र नगर में होली परंपरा 125 वर्ष प्राचीन
फोटो – इतिहासकार दीपक केसरवानी
सोनभद्र। वर्तमान जनपद मुख्यालय सोनभद्र नगर (रॉबर्ट्सगंज) का उत्तर मोहल में होली मनाने की परंपरा लगभग 125 साल प्राचीन है। इस परंपरा की शुरुआत स्थानीय निवासी व्यवसायी, समाजसेवी प्यारेलाल ने किया था।सन् 1846 में मिर्जापुर के उपजिलाधिकारी डब्लू०वी० रॉबर्ट्स द्वारा रॉबर्ट्सगंज नगर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की स्थापना आदि के कारण यहां पर संस्कृतिक,साहित्यिक गतिविधियां आरंभ हुई, इस श्रृंखला में होली मनाए जाने की परंपरा का शुभारंभ हुआ।नवनिर्मित नगर की स्थापना के पश्चात बसंत पंचमी के दिन उत्तर मोहाल के सब्जी मंडी वाले नुक्कड़ पर होलिका स्थापित करने की परंपरा की शुरुआत प्यारेलाल द्वारा किया गया। होलिका स्थापना के दिन से ढोलक, हारमोनियम, झांझ, ढपली की धुन पर फाग गीतों का गायन का आरंभ हो जाता था, स्थानीय महिलाएं दिन में और पुरुष अपने व्यवसाय से फुर्सत पाने के पश्चात पर भगवान शंकर, माता पार्वती, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, माता सीता, योगेश्वर श्रीकृष्ण, राधा पर आधारित श्रृंगार, प्रेम रस पर आधारित भजन एवं होली के गीत गाते थे। होलिका दहन वाले दिन स्थानीय निवासी होलिका के चारों ओर आम के टल्लो से सजाते थे और स्वयं अपने हाथों से होलिका की पूजा कर होलिका दहन करते थे।इतिहासकार दीपक कुमार केसरवानी बताते हैं कि-“ सोनभद्र नगर का उत्तर महाल संस्कृति, साहित्य, कला, पत्रकारिता का केंद्र बिंदु था। यहीं पर वाराणसी से प्रकाशित आज हिंदी दैनिक के पत्रकार, स्तंभकार निरंजन लाल जालान, महावीर प्रसाद जालान, ओम जालान, दैनिक जागरण के पत्रकार सत्यनारायण जालान, नगर के पूर्व चेयरमैन भोला सेठ, वाइस चेयरमैन एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोहनलाल गुप्ता, समाजसेवी शिव शंकर प्रसाद केसरी, पुरुष होते हुए भी स्त्रियों का स्वांग रचकर हिजड़ो के साथ नाच गाकर जीवन यापन करने वाले अनंत लाल, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, प्रसिद्ध कजली गायक श्री राम (जय श्री) चंडी होटल के मालिक चरणजीत सिंह,मिर्जापुर के मूल निवासी रामसूरत यादव ठेकेदार के सहयोग से होली मनाने की शुरुआत किया था।होली मनाने के लिए रंग बनाने की तैयारी स्त्रियां पहले से ही शुरू कर देती थी, टेशु के फूल से पीला,गुड़हल के फूल से लाल, पत्तियों से हरा रंग, हल्दी से पीला रंग तैयार करती थी इस प्राकृतिक रंग से लोग होली खेलते थे।इस दिन नगर के अढतिया मामा के ढपली की थाप पर फगुआ के गीत राजकुमार केसरी, शंभूनाथ केसरी, रामसूरत ठेकेदार की बैठक में गाते थे इसी दिन यहां पर इतनी होली खेली जाती थी कि बैठक की सफेद चांदनी, मसलद, दीवारें सभी रंगीन हो जाती थी।सुबह नगर के सब लोग रामसूरत ठेकेदार के बैठक में आते थे और एक दूसरे को रंग, अबीर, गुलाल लगाते थे और सम्मान स्वरूप उन्हें होली वाली टोपी पहनाई जाती थी तत्पश्चात सभी लोग बैठकर फगुआ गीत आनंद और गुझिया जैसे लचीज मिष्ठान का स्वाद लेते थे।दोपहर के बाद पहलवान द्वारा भांग और ठंडई पीसने का क्रम शुरू हो जाता था, शाम होते-होते भांग और ठंडाई तैयार हो जाती थी नगर के सभी लोग श्वेत वस्त्र धारण कर एक दूसरे को से गले मिलकर ठंडाई का आनंद लेते थे, किसी के साथ कोई जबरदस्ती नहीं, कोई मजाकबाजी नहीं जिसको भांग पसंद हो, जो खाता हो वह स्वेच्छा से भाग लेता था और पूरी महफिल मस्ती में डूब जाती थी यह क्रम देर रात तक चलता था।इसी स्थल पर बुढ़वा मंगल का भी आयोजन हर्षोल्लास के साथ किया जाता था।होली पर्व के आयोजन में सहयोग करने वाले केदार साव, शिव शंकर प्रसाद, किशुन साहू, प्रयाग प्रसाद, छटंकी साव, रामधनी मास्टर, वंशमन साहू, रामसूरत ठेकेदार आदि लोगों का योगदान रहता था।