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मनमोहन राय
26 जुलाई 1999, यह वह तारीख थी जब भारतीय सेना ने कारगिल में अदम्य शौर्य और साहस का परिचय देकर पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ा था। कारगिल फतह करने में राजधानी लखनऊ के जांबाजों की भी अहम भूमिका रही, जिनकी स्मृति विजय दिवस के रूप में हर साल 26 जुलाई को मनाई जाती है। आज इसकी 24वीं वर्षगांठ है। पेश है शहर के उन वीरों की कहानी, जिन्होंने कारगिल की पहाड़ियों पर अपना नाम इतिहास में दर्ज कराया…।
गोलीबारी से नहीं डगमगाए कदम, चार बंकर किए नेस्तनाबूद
– कैप्टन मनोज पांडेय, 11 गोरखा राइफल्स
परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय को कारगिल युद्ध का मुख्य नायक कहा जा सकता है। वह पांच नंबर प्लाटून संभाल रहे थे। 04 मई, 1999 को उन्हें कारगिल में भारतीय चैकियां खाली करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। बटालिक सेक्टर में जीत हासिल करते हुए वह आगे बढ़ रहे थे। उन्हें खालूबार तक हर पोस्ट जीतने के आदेश थे। इस दौरान जबरदस्त गोलीबारी से भी उनके कदम नहीं डगमगाए। उन्होंने दुश्मनों के चार बंकर नेस्तनाबूद किए। इस बीच वह दुश्मन की गोली का शिकार हो गए। मनोज पांडेय लखनऊ के एकलौते सैन्याधिकारी रहे, जिन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया। वह इस लिहाज से भी खुशनसीब थे कि सेना में भर्ती होने के महज दो साल बाद ही उन्हें अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिल गया। गोमतीनगर निवासी उनके पिता गोपीचंद पांडेय ने बताया कि उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज राष्ट्रीय रक्षा अकादमी गए, जहां से 1997 में गोरखा राइफल्स में कमीशंड हुए। सर्विस सेलेक्शन बोर्ड के साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि फौज क्यों ज्वॉइन करना चाहते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि परमवीर चक्र हासिल करना है। हालांकि, दुर्भाग्य यह रहा कि उन्हें इससे नवाजा तो गया, पर मरणोपरांत।
कहा था, देश के लिए लहू का एक-एक कतरा बहा देंगे
– राइफलमैन सुनील जंग, 11 गोरखा राइफल्स
सिर्फ 16 साल की उम्र में वर्ष 1995 में गोरखा राइफल्स में भर्ती होने वाले राइफलमैन सुनील जंग लखनऊ के पहले शहीद थे, जिन्होंने कारगिल में दुश्मनों की ईंट से ईंट बजाई थी। युद्ध छिड़ने पर 10 मई, 1999 को उन्हें कारगिल सेक्टर पहुंचने के आदेश मिले। वह एक टुकड़ी के साथ बढ़ रहे थे। उन्हें केवल यह पता था कि 400-500 घुसपैठिये हिन्दुस्तान की सीमा में आ गए हैं। तीन दिन भीषण गोलाबारी के बीच 15 मई को सुनील शहीद हो गए। उनके दादा मेजर नकुल जंग व पिता नर नारायण जंग महत भी सेना को सेवा दे चुके थे। सुनील में वीरता का बीजारोपण बचपन में हो गया था। आठ साल की उम्र में जब वह स्कूल के फैंसी ड्रेस प्रोग्राम में हिस्सा ले रहे थे, तभी मंच से एलान किया था कि देश की रक्षा के लिए वह अपने लहू का एक-एक कतरा बहा देंगे और मौका पड़ने पर ऐसा करके भी दिखा दिया। छावनी स्थित तोपखाना में रहने वाली सुनील की मां बीना महत को बेटे की शहादत पर फख्र है।
छुट्टी पर थे, बुलावे पर पहुंचे, दो चोटियों पर फहराया तिरंगा
– मेजर रीतेश शर्मा, 17 जाट रेजीमेंट
मेजर रीतेश शर्मा ने कारगिल युद्ध में अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मनों को खदेड़ा और जीत के नायक बने। लामार्टीनियर कॉलेज के छात्र रहे रीतेश 09 दिसम्बर, 1995 को सेना में भर्ती हुए। मई 1999 में 15 दिन की छुट्टी लेकर घर (लखनऊ) आए थे। इसी दौरान उन्हें कारगिल युद्ध की सूचना मिली। रेजीमेंट के बुलाने से पहले वह ड्यूटी पर पहुंच गए। चूंकि, जाट रेजीमेंट पहले ही कारगिल की ओर कूच कर चुकी थी, इसलिए मेजर रितेश ने यूनिट के साथ दुश्मनों से मोर्चा लेते हुए चोटी पर तिरंगा फहराया। उन्होंने दो और चोटियों पर भी फतह हासिल की, पर मश्कोह घाटी जीतते हुए वह घायल हो गए। उन्हें बेस कैंप में लाया गया और कमान कैप्टन अनुज नैयर को सौंप दी गई, जो शहीद हो गए। मश्कोह घाटी में तिरंगा फहराने के कारण ही 17 जाट रेजीमेंट को मश्कोह सेवियर का खिताब मिला। कारगिल के बाद 25 सितम्बर, 1999 को कुपवाड़ा में आतंकी ऑपरेशन के दौरान मेजर रीतेश खाई में गिर गए थे। अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था। बेटे की स्मृति में पिता की ओर से स्कॉलरशिप व मेडल दिए जाते हैं। इंदिरा नगर के जनकल्याण आंख अस्पताल में हर साल टॉपर्स को गोल्ड मेडल, आरएलबी स्कूल में हजार रुपये की छात्रवृत्ति दी जाती है।
खून से थे लथपथ, आखिरी सांस तक निभाया फर्ज
– कैप्टन आदित्य मिश्र, सिग्नल कोर
ऑपरेशन विजय में कैप्टन आदित्य मिश्र का अभूतपूर्व योगदान रहा। वह 08 जून, 1996 को सेना के सिग्नल कोर में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में भर्ती हुए थे। सितम्बर 1999 में उन्हें लद्दाख स्काउट में तैनाती मिली। कारगिल युद्ध छिड़ने पर वह बटालिक पहुंचे, जहां 17 हजार फीट ऊंची चोटी पर भारतीय पोस्ट को दुश्मनों से आजाद कराने के लिए धावा बोला था। साथ में राइफलमैन सुनील जंग और लांसनायक केवलानंद द्विवेदी ने दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ाई की। काफी मशक्कत के बाद उन्होंने दुश्मनों का खात्मा कर चोटी पर फतह हासिल की। पोस्ट पर कम्युनिकेशन के लिए तार बिछाने बहुत जरूरी थे, इसलिए आदित्य नीचे उतर आए। वह जब दोबारा पोस्ट पर गए तो वहां दुश्मन काबिज हो चुके थे। उनकी गोलीबारी में आदित्य घायल हो गए, फिर भी उन्होंने पोस्ट को खाली करवाया और सिग्नलिंग के तार बिछाने के बाद वीरगति को प्राप्त हुए। परिजनों ने बताया कि आदित्य की पढ़ाई कैथेड्रल व चिल्ड्रेन अकादमी से हुई। पढ़ाई के दौरान से ही उनमें सेना में भर्ती होने का जज्बा पैदा हुआ था।
पत्र में पिता को लिखा था, आपको मुझ पर फक्र होगा’
– मेजर विवेक गुप्ता, 2 राजपूताना राइफल्स
कारगिल युद्ध में पराक्रम का परिचय देने वाले मेजर विवेक गुप्ता को महावीर चक्र प्रदान किया गया। सेकेंड राजपूताना राइफल्स के मेजर विवेक गुप्ता और उनके छह साथियों ने तुलोलिंग में असाधारण शौर्य का परिचय दिया। उनके परिचित बताते हैं कि अंतिम बार वह मई में घर आए थे। उनकी यूनिट वादियों में ही तैनात थी। जैसे ही युद्ध की सूचना मिली, विवेक तत्काल लौटे और यूनिट को लेकर कूच कर गए। दो मुश्किल चोटियां जीतने के बाद वह जून को शहीद हो गए। आठ जून को मेजर गुप्ता ने पिता को पत्र में लिखा था ‘आपको मुझ पर फख्र होगा।’ हालांकि, यह पत्र उनके पिता को 17 जून को मिला, जब आर्मी शहीद को सलामी दे रही थी। मेजर गुप्ता ने नेशनल डिफेंस एकेडमी से ग्रेजुएशन किया। यहां से निकलने के बाद उन्होंने एक बार पिता से कहा कि वह सेना में मोजे व ट्राउजर गिनने के लिए नहीं हैं। यह बात उन्होंने तब कही, जब उन्हें सुरक्षित पोस्टिंग दिलाने की चर्चा हो रही थी।
मातृभूमि की रक्षा के लिए बीमार पत्नी को छोड़ चले गए
– लांसनायक केवलानंद द्विवेदी, कुमाऊं रेजीमेंट
शहीद लांसनायक केवलानंद द्विवेदी बीमार पत्नी को छोड़ युद्धभूमि में चले गए थे। पत्नी ने उनसे कहा था कि मातृभूमि को आपकी ज्यादा जरूरत है, पर उन्हें क्या पता था कि लांसनायक खुद नहीं लौटेंगे। केवलानंद द्विवेदी का जन्म 12 जून 1968 को पिथौरागढ़ में हुआ। पिता ब्रह्मदत्त द्विवेदी सेना में सूबेदार थे। लांसनायक कारगिल सेक्टर में दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हुए बढ़ रहे थे कि ऊंचाई पर बैठे पाकिस्तानियों की एक गोली उनके सीने में धंस गई। हालांकि, उनके कदम रुके नहीं। अंतिम सांस तक केवलानंद ने दुश्मनों का सामना किया और शहीद हो गए। छह जून, 1999 को उनकी शहादत की खबर परिवार को मिली। इस सदमे से उनकी मां चल बसीं। 1990 में जब केवलानंद द्विवेदी की शादी हुई, तब वे 22 और उनकी पत्नी कमला द्विवेदी 20 साल की थीं। सरहद की सुरक्षा में बेहद व्यस्त रहने वाले केवलानंद को छुट्टियां भी बहुत कम मिलती थीं। शादी के बाद वह केवल चार बार ही घर आए थे।